धातु और चमड़ा उद्योग

(1) धातु उद्योग

अठारहवीं शताब्दी में भारतीय समाज के आर्थिक पहलू का एक महत्वपूर्ण अंग धातु का उद्योग था। 

वह उस समय सरल स्थिति में था। समाज की विभिन्न आवश्यकताओं की लोहे की वस्तुओं की पूर्ति लुहार करता था। 

वह समाज के हर वर्ग व व्यवसाय की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वस्तुएँ बनाता था। 

खेती के लिए हल का फल, खुदाई के लिए कुदाल, लकड़ी काटने के लिए कुल्हाड़ी और फसल काटने लिए हँसिया वही बनाता था। 

वह विभिन्न व्यवसायों में लगे लोगों जैसे सुनार, चमार, मिस्त्री, बढ़ई व नाई आदि के काम में आने वाले औजार भी बनाता था। 

इसके अतिरिक्त खाना बनाने के बर्तन, मकान के निर्माण के समय इस्तेमाल की जाने वाली चीजें जैसे कब्जे, कोलें व साँकल आदि बनाता था और दैनिक आवश्यकताओं की चीजें जैसे चाकू, ताले, चाबियाँ तलवार, कटार आदि तक वही बनाता था। 

इस प्रकार लुहार धातु उद्योग का केन्द्र था किन्तु अंग्रेजों के आगमन के पश्चात् मशीनों से बनी लोहे की वस्तुओं के आयात के कारण लुहार का काम पिछड़ गया।

लोहे के अतिरिक्त ताँबे, पीतल जैसी धातुओं का भी बड़ी मात्रा में उपयोग होता था। 

इन धातुओं के उद्योग लोहे के समान सभी ग्रामों में नहीं थे। किन्तु इन धातुओं का काम करने वाले पर्याप्त मात्रा में थे जिससे समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति सुविधा से होती थी। 

ताँबे व पीतल के अतिरिक्त एक अन्य प्रकार की मिश्रित धातु, काँसे के रसोई के बर्तन इन्हीं धातुओं से बनते थे। 


मन्दिरों में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, पूजा के बर्तन व अन्य सामग्री ताँबे व पीतल की बनती थी।

इन धातुओं के बर्तन व अन्य वस्तुएँ बनाने के लिए कुछ केन्द्रों का विकास हो गया था। 

बंगाल काँसे के बर्तनों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध था। उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद, लखनऊ, बनारस तथा झाँसी आदि में पीतल व ताँबे के बर्तन, पूजा की मूर्तियाँ आदि और खिलौने बनते थे। 

जहाँ बनारस पीतल के बर्तनों की चमक व डिजाइन के लिए प्रसिद्ध था, वहाँ मुरादाबाद में पीतल के बर्तनों पर कलाई और नक्काशी का काम विशेष रूप से होता था।

(2) चमड़ा उद्योग-

भारत में अठारहवीं शताब्दी में चमड़ा उद्योग भी पर्याप्त विकसित था। 

मोची का कार्य चमड़े की विभिन्न आवश्यकताओं की वस्तुएँ बनाने का था। 

प्रत्येक ग्राम की छोटी-मोटी आवश्यकताएँ तो ग्राम का मोची ही पूरी कर देता था किन्तु कुछ विशेष ग्रामों में चमड़े का व्यवसाय केन्द्रित हो जाता था। 

वह केन्द्र आस-पास के ग्रामों की आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। 

चमड़े की वस्तुएँ बनने तक यह विभिन्न अवस्थाओं में होकर गुजरता था जैसे खालें एकत्र करना, चमड़ा बनाना, चमड़ा छीलना, चमड़ा रंगना, तथा विभिन्न वस्तुएँ बनाना। 

इन सभी कार्यों को अलग-अलग लोग करते थे।

चमड़े का कार्य करने वाले नीची जाति के लोग समझे जाते थे किन्तु समाज के सभी वर्ग इन पर पूर्णत: आश्रित थे। 

ये लोग उच्च व मध्य वर्ग के लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। 

जूते, सैंडिल व सलीपर आदि बनाना इन्हीं कार्य था। जूतों के अतिरिक्त चमड़े के थैले, मश्कें, हैंड बैग तथा विभिन्न प्रकार के खाद्य यन्त्र बनाए जाते । 

चमड़े की पेटियाँ, रस्सियाँ, घोड़े की जीन व लगाम आदि भी चमड़े की ही बनती थीं। 

इस उद्योग में लगे मोची साधारण आवश्यकताओं की वस्तुएं बनाते थे और उच्च वर्ग के लिए अच्छी वस्तुओं को विशिष्ट कारीगर बनाते थे।



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